जो
जो
जो मैँ तुम्हारा मुकद्दर नहीं हूँ
गमों की समझ कैसे आती तुम्हे है
जो मैँ तुम्हारा सिकन्दर नहीं हूँ
ज़मीं की कसक कैसे भाती तुम्हे है !
रवानी की फिर से कहानी लिखूँ तो
तुम्हारी फिजा कितनी हसीन होगी
हमे भी फिकर है ज़रा रूठने की
गर खुश हो गये तो रंगीन होगी !
अभी तो मिले थे, लगता है ऐसा
तभी तो हमारी महक भी वही है
कहाँ छोड़ आये हमारी सनक हम
सनम तुम हमारे, असल भी वही है !
हरा कर कभी किसे क्या मिला है
जीत जायें तो भी तुम्हारा रब ना बनूँगा
मुश्किल से कोई अपना मिला है
सजा कर उसका दीदार करता रहूँगा !!
