जज़्बात बिखेरे कोरे कागज़ पर!
जज़्बात बिखेरे कोरे कागज़ पर!
जज़्बात बिखेरे थे कभी कोरे कागज़ पर,
उलट-पुलट कर तरोताजा करता कौन है।
मुड़े-मुड़े से हैं किताब-ए-इश्क़ के पन्ने,
ये कौन है जो हमें हमारे बाद पढ़ता है।
रुह जो बस सी गई उन पन्नों में,
उन्हें हवा में मुखलिस महकाता कौन है।
लिखकर जो अधूरा छोड़ दिया हमने,
तसव्वुर से हकीकत का जामा पहनाता कौन है।
बरसों गुजर गए पैबस्त तहों में है,
दश्त-ए-तन्हाई को गुलज़ार करता कौन है।