जिम्मेवारी की चादर ओढ़
जिम्मेवारी की चादर ओढ़
हम भी होते थे कभी बेख़बर यहां
ना करते थे किसी की कोई परवाह
वक़्त का रहता था ना हमको पता
बेवक़्त मंज़िल को था यूँ तलाशता
आजाद परिंदा सा था ख़्याल रखता
उड़ान मेरी को ना था कोई रोक सका
आज देखो बदल गया है कितना दौर
जिम्मेवारी की चादर ओढ़ खो गया एक ओर
समय की होड़ में अब हूँ ऐसा फंसा
जिंदगी की दौड़ में हूँ उलझ सा गया
यहां खुद के सपनों का ना मचता शोर
कुर्बान करने लगा हूँ इन्हें अपनों की ओर
जमाने से जीतने की लत थी जो लगी
जाने कहां आज है वो यूँ ही चली गयी
एक ही गली में अब तो आना - जाना बचा
जिम्मेवारी की चादर ओढ़ जो हूँ मैं चला
जिंदगी की परेशानियों ने अपना है बना लिया
गले लगाकर कहती वो तू हमको अच्छा है लगा
मैंने भी मन की गहराई में समाकर इनको अब
चेहरे से हल्का सा देता हूँ इनपर यूँ ही मुस्करा
मनोभाव को ना समझे जब भी कोई अपना
फिर कहता हूँ इन परेशानियों को दिल से लगा
तुम क्या अब इस दरिया में शोर मचाओगी
जिम्मेवारी की चादर ओढ़ जो एक सागर बना।
