मौन हूँ अनभिज्ञ नहीं हूँ
मौन हूँ अनभिज्ञ नहीं हूँ
सीता, सावित्री, गाँधारी,
कुंती या द्रौपदी
गार्गी, मैत्रैयी, अनुसूया,
अहिल्या या मंदोदरी
लोपा, लक्ष्मी, इंदिरा या मीरा
नाम कुछ भी हो सकता है मेरा
नाम में क्या रक्खा है
स्त्री हूँ मैं।
मौन हूँ पर अनभिज्ञ नहीं हूँ
हर युग घूमता है
मेरे ही इर्द-गिर्द
पालती पोसती हूँ
बदलाव की परिभाषाएं
धारण करती हूँ कोख में महिनों तक
तब जन्म देती हूँ
नई मान्यताओं को
परम्पराओं को
गुनती हूँ पीङ़ा का पहाड़ा
कभी फटती है घरती
कभी होता है महासंग्राम
कभी-कभी पत्थर होना पङ़ता है मुझे
कभी गोलियों की होती हूँ शिकार
कभी हो जाती हूँ विधवा।
तुम क्या जानो
मेरी मौन तपस्या का सच
जब करवट बदलती है सदी
देनी पड़ती है मुझे
अपने हाथों अपनी ही आहुति।
ताश के बावन पत्तों के बीच
मैनें अपनी पहचान बनाई है
खेल चाहे जो भी हो
बेगम होती है शामिल
हाँ मौन हूँ
पर अनभिज्ञ नहीं हूँ
ताश होकर भी
बिखरती नहीं हूँ
सह जाती हूँ बड़े-बड़े तूफान।
थककर भी नहीं थकती
सोकर भी नहीं सोती
पहरेदारी करती हूँ चौबीसों घंटे
नहीं करती स्वयं की परवाह
पर आज्ञा, अवज्ञा,
प्रतिशोध, मान, अपमान
सब जानती हूँ मैं
मौन हूँ अनभिज्ञ नहीं हूँ।
मौन को मत मान लेना मेरा प्रेम
जब तक मैं प्रेम में हूँ
सलामत है सृष्टि
जिस दिन मौन टूटा
प्रलय का बुलावा
खड़ा होगा तुम्हारे द्वार पर।