सन्नाटे
सन्नाटे
बेलगाम सी दौड़ती ज़िंदगी को
अचल में बदलकर वक्त ठहर गया
शोर के मेलों की सरगम थी
बजती जहाँ मौन के डेरों ने ले ली
आज उसकी जगह जो शहर था
रैन बसेरा आज हाथों से छूट रहा है .!
शहरों की साँसों में अटकी
रवानी है मजमें हर जम गए
ताले से लग गए सन्नाटे रम रहे
हर कूचे के मोड़ पे ना काम है
ना रोटी हम भूखों मर रहे है.!
रफ़्तार की शिद्दत से घिरे
पैरों पर बेडियाँ लगा गई
वक्त की शाख से कुछ बूँद
गिरी सुकून की अंगीठी में
कोई चिंगारी भर गई.!
जायका पूछे कोई गरीब से
ये महामारी कच्चे कोयले सी
पेट की आग निगल गई
जमे थे पाँव जिस शहर में
आज अलविदा कह रहे है
रैन बसेरा को सौ सलाम
यहाँ से उठ गया दाना पानी लो
अब हम तो सफ़र करते हैं।