ओढ़ तिरंगा घर आया है
ओढ़ तिरंगा घर आया है
माँ का पूत सपूत सिपाही,
ओढ़ तिरंगा घर आया है।
नैनो के दो दीये जलाकर,
आंगन में माँ पथराई है।
सूख गई अश्कों की सरिता,
नहीं दूर तक परछाई है।
सीना बेशक छलनी है पर,
गर्व यही कुछ कर आया है।
मां का पूत सपूत सिपाही,
ओढ़ तिरंगा घर आया है।
एक पिता से पूछो कैसा,
लगता उसका कंधा टूटे।
और बुढ़ापे की लाठी ही,
बीच राह में उससे रूठे।
लेकिन वो सैल्यूट कर रहा,
कर वो नाम अमर आया है।
माँ का पूत सपूत सिपाही,
औढ़ तिरंगा घर आया है।
जिसके दम पर गगन चूमती,
प्राण वायु वो निकल गयी है।
इसीलिए पत्नी टूटी पर,
यही सोच कर संभल गई है।
उसको बेवा भले कर गया,
मांग वतन की भर आया है।
माँ का पूत सपूत सिपाही,
ओढ़ तिरंगा घर आया है।
बच्चे तुतलाई बोली में,
पापा से बतियाते हैं पर।
इतनी दूर गए हैं पापा,
हाथ नहीं वो आते हैं पर।
कौन बताए उन्हें के उनका,
पापा नहीं इधर आया है।
माँ का पूत सपूत सिपाही,
ओढ़ तिरंगा घर आया है।