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Shakti Srivastava

Abstract

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Shakti Srivastava

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जीवन !

जीवन !

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अक्सर हमें जाना पड़ता हैं घर छोड़कर,

कभी घर चलाने को तो कभी नाम कमाने को।

और यकीन मानो,

सिर्फ घर नहीं छूटता,

कुछ यादें छूट जाती हैं,

कुछ वादे छूट जाते हैं। बचपन के दोस्त छूट जाते हैं,

स्कूल को जाने वाली वो सडक छूट जाती है,

खेलने का मैदान छूट जाता हैं,

घर का आँगन छूट जाता है।


इक किराना का दुकान छूट जाता हैं,

तो इक मिठाई कि दुकान छूट जाती है,

बाजार कि वो ताज़ा सब्जी छूट जाती हैं,

वो दूध वाले से अपने गिलास मे अलग से दूध लेना छूट जाता हैं।


वो साल मे इक बार लगने वाला मेला छूट जाता हैं,

तो उसी मेले का खिलौना और इक झूला छूट जाता हैं,

पापा के मार के डर से बगल वाले अंकल के घर छुपना छूट जाता हैं,

और मार खाने के बाद माँ का मरहम लगाना छूट जाता हैं।


इक साइकिल कि रेस छूट जाती हैं,

तो पापा के कंधे पे बैठ के घूमना छूट जाता हैं,

माँ के हाथ का खाना छूट जाता हैं,

तो कभी कभी रूठने पे माँ का मनाना छूट जाता हैं।


यकीन मानो, बहुत कुछ छूट जाता हैं,

पर हम लगे रहते हैं कि किसी तरह जीवन मे सफल हो सके,

कभी अपने लिए तो कभी घर वालों के सपनों के लिए।


पर इक रोज जब जीवन मे सफल हो जायेंगे

और कभी आराम से बैठेंगे तो सोचेंगे,

क्या ये सफलता अपनों के साथ नहीं मिल सकती थी,

क्या इतना दूर आना जरुरी था। फिर सोचेंगे कि कभी उन गलियों मे फिर से जायेंगे

और बचपन कि यादों को फिर से महसूस करेंगे,

मगर शायद जा नहीं पाएंगे।

क्योंकि हमारे जीवन का इक नया लक्ष्य शायद हमारी प्रतीक्षा कर रहा होगा।


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