जीवन गति
जीवन गति
दुख जब चिर तक बढ़ जाये,
तब वो सुख का फरमान बने,
उस पीड़ा को दिल छोड़े कैसे,
हृदय का जो आराम बने।
जिस मृत्यु से जन्म मिला करता,
जिस मिटने में है सृजन छिपा,
आज बुरा वो कैसे है ?
जो कल का निर्माण बने।
अश्कों पर कविता करनी,
जिस कारण से सीखी है,
बुरा उसे कैसे कह दूँ,
वो तो मेरा निर्माण बने।
पा जाते यदि अपनी इच्छा को,
तो तृप्ति मुझे हो जाती फिर,
विरक्ति, तृप्ति से पैदा होती है,
तुम ! मेरा चिर अरमान बने।
खो बैठे थे हम खुद ही को,
जब तुम जीवन में बसते थे,
विदा तुम्हें कर के खुद से,
अब हम अपनी पहचान बने।
छल-छल कर स्वप्नों ने मुझको,
किसी हेतु न छोड़ा था,
भंगुरता पर अब सपनों की,
हम सत्य का अनुसंधान बने।
पूजा करनी थी मैंने की,
अपने स्वभाव के वश होकर,
अब कोई कामना क्यों आकर
आखिर इसमें व्यवधान बने।
जो सुख पर "आराध्य" गँवा बैठे,
कैसे उसमें "ईमान" मिले,
जो "सत्य" मिटा कर 'साधु' बने,
तो क्यों उसको "भगवान" मिले ?