जीवन चक्र
जीवन चक्र
जीवन के हैं रंग हजार, हर रंग से है मुझको प्यार
जीवन चक्र ये चलता जाए, नया रूप मिले हर बार।
बन बच्चे हम माँ बाप के, खुशियां हज़ारों भर लाते हैं,
गोदी में खेल उनकी, दामन को सजाते हैं।
न कोई चिंता न फिक्र, बस हँसते रोते रहते है,
कभी माँ की गोद मे तो कभी कंधे पिता के सोते हैं।
धीरे धीरे बढ़ते है फिर बालपन आता है,
वो बच्चा सारा समय फिर खेलने-पढ़ने में लगता है।
खुद के देखे सपने फिर माँ बाप बच्चे को दिखाते हैं,
अपना सब कुछ लगा फिर काबिल उसे बनाते हैं।
युवा हो वो फिर मदमस्त हो जाता है,
काबिल बन फिर सबके सपने पूरा करना चाहता है।
उसका भी परिवार अब उसकी जिम्मेदारी होती है,
इस जीवन की चक्की में फिर जिंदगी उसकी खो रही होती है।
यूँ ही कब बुढ़ापा दरवाज़े पर दस्तक देता है,
अभी तो सपने पूरे हुए नहीं पागल मन ये कहता है।
यूँ ही जीवन ये पूरा निकल जाता है,
और एक दिन वो समय भी आ जाता है,
जब एक नए जीवन चक्र के लिए फिर से तैयारी करनी होगी,
फिर से किसी माँ की खाली झोली भरनी होगी।
ये सिलसिला तो बस यूँ ही चलता रहता है,
समय निकलने पर इंसान हाथ मलता रहता है।
कहना है बस इतना जो है, जितना है उसमे खुश रहना सीख जाओगे,
तो सही मायनों में जीवन जीने का मंत्र तुम पाओगे।
