जहरी अँधेरा
जहरी अँधेरा
काँपता है देखकर मन
स्वप्न का बिखरा बसेरा।
त्रस्त होकर सोचता फिर
तिमिर कैसा घना घेरा।
घात मानव ने किए सब
शूल धरती को चुभोकर।
काट के तरु अंग सारे
मौत सागर जग डुबोकर।
व्याधियाँ अब चोट करती
डाल पथ में आज डेरा।
काँपता है...
रोज ही अब शोर मचता
रोग नहीं छुपता छुपाय।
ढूँढते फिरते सभी अब
संकटों से घिर उपाय।
रोशनी सुख की हटाकर
घिर रहा जहरी अँधेरा।
काँपता है....
हो रही बंजर धरा अब
बीज जीवन घट रहा है।
अधर्म का रूप धरा पे
रोग बनकर बढ़ रहा है।
बाँटता है ज्ञान कोरा
द्वेष अंतस है घनेरा।
काँपता है.......।
