जहर मिटाएँ
जहर मिटाएँ
नफ़रत एक जहर है, जो भीतर पलता है,
धीरे-धीरे इंसान को भीतर से खा जाता है।
न रंग देखती है, न धर्म की बात,
बस जलाती है हर रिश्ते की ज़ज़्बात।
जहाँ प्यार उगता था, अब वहाँ खामोशी है,
चेहरों पे मुस्कान नहीं, बस बेग़ानगी सी है।
दिलों में दीवारें हैं, आँखों में शक,
नफ़रत ने छीना हर भाव का मुक।
नफ़रत से कोई जीतता नहीं,
हर ओर बस आँसू, हर कोना अधूरा सही।
इसकी आग में न घर बचता है, न गाँव,
सिर्फ राख बनती हैं उम्मीदों के पांव।
चलो, इस जहर को आज ही मिटाएँ,
प्यार, माफ़ी, और समझ का दीप जलाएँ।
क्योंकि नफ़रत से कुछ नहीं पनपता है,
इंसान तभी इंसान है, जब दिल में प्रेम बसता है।
