क्या कहना क्या करना
क्या कहना क्या करना
हम मना करते हैं कि
देखो न तमाशा सड़क पे किसी घटना का।
हम खुद तमाशाबीन हैं, कितने ही तमाशों के।
हम कहते हैं बाँटो न देश-दुनिया को वर्गों में,
हमने खुद ही कितने गुट बना रखे हैं।
कहते-लिखते हैं हम सच की होती है विजय,
सचराम की खुरचन भी चुभती है आंखों में पर।
है जो प्रतिभा तो रंग लाएगी, समझाते हैं,
ज़माने की प्रतिभा से भारी मित्रवाद है लेकिन।
यूँ ही चलता रहेगा ज़माना,
यूँ ही कहता-करता रहेगा कवि-लेखक भी।
कौन पढ़ेगा इस पल को नोचती इस कविता को?
क्या तुम?
