समाज की तस्वीर
समाज की तस्वीर
सांप्रदायिकता की दीवारें ऊँची हो गईं,
मन में नफरत की लहरें और गहरी हो गईं।
हर सोच में बंट गए हैं लोग,
धर्म के नाम पर हो रहे हम सब झगड़ें, और मोड़।
क्या यही है जीवन का सच्चा फलसफा?
जहाँ इंसानियत खो जाए, और जीत जाए जाति-धर्म का झमेला।
सांसों में सासें मिलाने की बजाय,
हम धर्म की बंधन में खुद को खोने लगे हैं, क़दमों के साए।
माँ की गोदी में सब बच्चे एक समान,
कभी न देखा था कोई जात-पात का नाम।
फिर क्यों, इस दुनिया ने ये दीवारें खड़ी कीं?
मनुष्य के दिलों में क्यों अलगाव की नींव डाली गईं?
सांप्रदायिकता नहीं है हमारा सच,
यह तो बस बुरे विचारों का जाल है, जो काटना है।
आओ, एकता के रंगों से फिर से सजाएं दुनिया,
समाज की तस्वीर को हम सभी मिलकर बनाएं खुशहाल।
धर्म से ऊपर इंसानियत की तस्वीर,
यही हो हमारी असली पहचान, यही हो हमारी ज़िंदगी का मिशन।
