चिट्ठियों में भावनाएँ
चिट्ठियों में भावनाएँ
एक वक्त था जब बातें दिल से होती थीं,
चिट्ठियों में भावनाएँ खुल के रोती थीं।
अब उंगलियों की हरकत में बसी है दुनिया,
मोबाइल में सिमट गई हर रिश्तों की बुनिया।
सुबह जागते ही स्क्रीन पर नज़र,
रात सोने से पहले वही आख़िरी सफ़र।
घर में सब हैं, पर बात कोई नहीं,
साथ होकर भी साथ कोई नहीं।
खुशियाँ अब इमोजी में बयां होती हैं,
"कैसे हो?" बस स्टेटस से जान ली जाती हैं।
तस्वीरें खिंचती हैं हर पल, हर घड़ी,
पर असली मुस्कान कहीं खो गई बड़ी।
बच्चा हो या बूढ़ा, सब इसमें व्यस्त,
मोबाइल है राजा, और हम उसके दास।
चलते-चलते भी झुकी रहती है गर्दन,
जैसे दुनिया अब है बस उसकी धरपन।
मोबाइल ज़रूरी है, ये मानते हैं हम,
पर उससे ऊपर भी है जीवन का राग-संगम।
थोड़ी बातें, थोड़ी मुलाकातें ज़रूरी हैं,
इन मशीनों से ज़्यादा रिश्ते ज़रूरी हैं।
चलो कभी बिना मोबाइल के भी जिएं,
अपने अपनों से कुछ पल खुलके कहें।
जीवन को फिर से महसूस करें साफ,
मोबाइल में नहीं, दिल में हो असली ग्राफ।
