जाना अनजाना
जाना अनजाना
राह के पास लहलहाता हरा खेत हूं
हरे के पास रहता भूखा भरा पेट हूं
भरे के पास होता खाली खजाना हूं
खजाने में न जाने मैं क्यौं उलझा हूं।
न जाने में अनजान बन बैठा हूं
अनजाने में नादान बन बैठा हूं
एक राह के पास देख हरे खेत को
मै खुद को हरा खेत समझ बैठा हूं।
हरे खेत में बैठा और हरियाली ढूंढने लगा
कहा ना मैं जानकर अनजान बन बैठा
हरा है जो खेत राह के पास का याद ना रहा
पर राह में मिला कोई अनजान न जाने कैसे याद रहा।
याद रहा कि अनजाना जाना पहचाना है
ना जाने फिर भी क्यों अनजाना है
मैं ना बोला तो वो भी कुछ ना बोला
ना बोलने का मतलब, क्या वो अनजाना है।
अनजाना है इसलिये मुझे नहीं पहचानता हैं
मैं राह के पास लहलहाता हरा खेत हूं
राह है स्वयं अनजाना
जिसके पास में मैं हूं
राह हैं जो उसका उलटा मैं हूं
मै हूं वो जिसका उलटा राह है
राह से उडकर आती धूल मुझ पर
फिर भी में राह को क्यों हरा दिखता हूं।
मेरा विलोम ना आ सकता मेरे आवेश में
मेरा भेष ना जानता विवेक से
हर बार आता हैं विशेष वेष में
मुझे सिर्फ देखने कि मैं कितना शेष हूं।
राह में अनजान से मुलाकात हो गयी
जानकर मुझे, मुझसे फिर अनजान हो गयी
हरे में औंस की नमी भर गयी
फिर धूप बनी और औंस छिन ली।
जो देना था सो दिया
जो लेना था सो लिया
पर क्या लेना और क्या देना
क्या सच में यहींं है जीवन का गहना।
गहना नहींं यहाॕ यह सब सहना हैं
मन के हरे खेत को न चाहते हुये भी
मौसम के बदलते ही सुखना होता हैं।
ये मौसम कब सम रह पाता हैं
ये मौसम कभी भी बारिश लाता हैं
जानकर भी अनजाने को नहीं भूलाता हैं
मन का मौसम अनजाने की यादों में हरा रहता हैं।
तब सच ही कि राह के पास लहलहाता हरा खेत हूं
जब हरे के पास रहता भूख से भरा पेट हूं
भरे के पास होता खाली खजाना हूं
खजाने में न जाने मैं क्यौं उलझा हूं।