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Rajkumar Jain rajan

Tragedy

4.7  

Rajkumar Jain rajan

Tragedy

इशारों को अगर समझो तो

इशारों को अगर समझो तो

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भीगी-अलसायी 

खुशनुमा सुबह

घर - आंगन में पसरी धूप

फुदक - फुदक कर

चहचहाती गौरैया

अब कहाँ दिखाई देती है ?


अंगुली पकड़ चलते

छोटे बच्चे के होठों पर खींची

मुस्कान का 

वो मीठा - सा अहसास

और तुतलाती जुबान की मोहकता

'आया' की छाया में

अब कहीं खो गई ?


हर संध्या

घर में पूजा - आराधना

मंत्रों का समवेत स्वर

सबके मन का उल्लास

और साझा चूल्हे का

अपनेपन वाला स्वाद

अब क्यों नहीं मिलता ?


दिवाली की गुजिया, ईद की सेवैयाँ

मंदिर की आरती, मस्जिद की अज़ान

चर्च का कन्फेशन,

और गुरुद्वारे का कीर्तन

अब होने लगे उदास

हर उत्सव की मिठास को

जाने किसकी नज़र लग गई है ?


गांव की पगडंडियाँ

कंक्रीट में बदल गई

चौपाल की मस्ती

अमूवा की महक, तुलसी की पावनता

नीम की शीतल छांव, स्वछ हवा

विकास की अंधी आंधी में

अब क्यों देती नहीं दिखाई ?


आपस का सद्भाव

रिश्तों की खुशबू

संस्कारों की महक

विकास के नाम पर और

साइबर दुनिया में उलझकर

दम क्यों तोड़ रहे हैं ?


इशारों को अगर समझो

कोई भी परिवर्तन 

यों ही नहीं होता

उसमें हमेशा मौजूद रहता है

हमारी क्रूरता का

नृशंस इतिहास !

 

संस्कृतियां, परम्पराएं

मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाती है

क्यों भूल जाते है हम हर बार ?


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