इंसान
इंसान
ज़मीं रुकेगी या आसमां झुकेगा,
ना जाने कब इंसान रुकेगा!
काट-काट कर हरियाली
ढूंढ़ते हैं हम खुशहाली,
हरे भरे जो जंगल थे
शाखाएं थीं, दरख़्त थे,
बाग सारे वीरान हो गए
बड़े बड़े मकान हो गए!
देख के अपनी नादानी
करनी अपनी मनमानी,
न जाने कब इंसान रुकेगा!
काट काट जंगल हमने
पत्थरों का शहर बनाया
जहां था पहले उन्मुक्त जीवन
वहां हमने इंसान बसाया!
ताज़ी हवा की खुशबू को
जब भी मेरा जी ललचाया,
खुद को शहर के किसी कोने में
मोटरों के धुएं में पाया!
ठंडी हवा जो चाही हमने
मशीनों ने ही साथ निभाया,
नदियों का निर्मल जल भी
बोतलों में बंद है पाया!
'आदमी' बनने की चाहत में
'इंसान' भी न बन पाया,
भीड़ में खुद को तन्हा पाया
जब भी बचपन याद है आया!
बचपन की अठखेलियां
अब कमरे में सिमट गई,
रिमोट आ गया हाथों में,
और आँखें टीवी पर जम गई।
