इन्सा
इन्सा
साहिल को तलाशते-तलाशते समन्दर में खो गये
लहरों पे कहाँ खो गए
अपने ही कदमों के निशां ढूँढ़ते हैं
इन्सा बना फिरता है देवता
अरे, देवता को छोड़ो इन्सा इन्सा नहीं
फिर भी देवताओं की भीड़ में
कहाँ खो गया इन्सा ढूँढ़ते हैं
ईंट की दीवारें हैं
रेत के घरौंदे हैं
इन ईंट रेत की दीवारों में
हम अपना आशियाँ ढूँढ़ते हैं
कहने को तो सभी अपने हैं
हम अपनों के बीच - हमराही, हमसफ़र
अपना हमराह ढूँढ़ते हैं
जिन्हें उंगली पकड़ चलना सिखाया
साहिल पर लड़खड़ाने से बचाया
उन्हीं अपनों में आज
अपनत्व के निशां ढूँढ़ते हैं
ज़िंदगी भर जिनके लिए
मर - मर के जीते रहे
मौत पे जो मगरमच्छी आँसू ना बहाये
वो इन्सा ढूँढ़ते हैं
हैवानियत की हद
इस कदर पार की इन्सा नें
जानवरों की भीड़ में
कहाँ खो गया
"शकुन" वो इन्सा ढूँढ़ते हैं !