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हसरत

हसरत

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कभी कह न सकी

और शायद ही कभी कह पाऊँ,

कि तुम्हारी खूबियों से ज़्यादा

तुम्हारी ख़ुमारी पर दिल आया था

और जब क़रीब से जानने का मौका मिला

तुम्हारे बांकपन के रंग-बिरंगे सपनो में

मैंने खुद को बेरंग पाया था।


ये बेरुख़ी पाना नहीं थी मेरी हसरत,

पर तुम्हें हज़रत मान बैठी ये आँखे

तुम्हारी त्योरियों में चढ़ कर भी खुश थी

इतनी ज़िद्दी कि तुम्हें खिलखिलाता

देखने की ख्वाहिश में औरों से

बढ़ी दिल्लगी नाप कर भी चुप थी

सोचा था एक दिन अपनी उल्फ़त

से तुम्हें बदल दूंगी

अपनी चाहत के रंग में ढाल कर तुम्हें

अपने जैसा कर दूंगी


पर तुम्हें अब भी खुद से दूर पाकर

मुरझाता सा एक कुमुद हूँ

पर तुमसे क्या उम्मीद लगाना

जब अपने इस हश्र की ज़िम्मेदार

तुम नहीं मैं खुद हूँ

कांच सा मन जो किया हवाले

बिना किसी हिदायत के

अब तो अश्क़ भी परिचय भूल गए हैं

क्या दुःख, क्या शिकायत के?


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