डर
डर
जानते हो आजकल मुझे कोई गिला नहीं होता
उन जोड़ों को देखकर जो सड़क के किनारे हाथ
में हाथ डाले चलते हैं
ना ही उन झील के किनारे बैठे लैला मजनू से
जो एक दूसरे की आखों में हर पर उतरते हैं।
ना ही उन मियां बीवी से जो घंटों तक तू- तू
मैं- मैं करके भी साथ सुकून से सोते हैं
और उनसे भी नहीं जो इक दूजे की याद में
ख़त लिख कर रोते हैं।
तुम से आज तक मिली नहीं,
पर लगने लगा है जैसे तुम्हें बहोत चाहने लगी हूं
तुम्हारी सीधी सपाट बातें और सादापन जान कर
तुम्हें अपना मानने लगी हूं।
जब तुम कहते हो जल्द आओगे,
और आते ही
मुझे अपने आगोश में समा लोगे
समाज के अटपटे नियमों की परवाह ना कर
मैं तुम्हारी हूं सबको बता दोगे,
तुम्हारी इस ज़िंदादिली से मैं इतनी प्रभावित हूं
कि पहचान बदलकर तुम्हारी कहानियां
सहेलियों को सुनाया करती हूं
वो जब मंत्र मुग्ध होकर सुना करती हैं तो
मैं खुद की पसंद पर इतराया करती हूं।
तुम्हें तस्वीर में इतनी बार देखती हूं कि
अब तुम्हें सुनकर ये भांपना मुश्किल नहीं लगता कि
किस समय, किस बात पर तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी
ऐसे समझने लगी हूं मैं तुम्हें कि बस मिलते ही
इस कदर तुम्हारी हो जाऊंगी कि
मेरे प्यार की इंतेहा तुम्हारी आखों में बयां होगी।
पर डर भी लगता है कि अगर तुम ना आए तो?
या मुझे रूबरू देखकर मुझसे जुड़ ना पाए तो?
मेरी आवाज़ के कायल हो जानती हूं,
पर फिर भी मुझसे प्यार ना कर पाए तो?
हर पल सोचती हूं इश्क चेहरे की खूबसूरती से ऊपर है
पर मैं भी तुम्हारे दिलकश चहरे पर तो मरती हूं
तुम्हारे मेरे रिश्ते पर संशय तो नहीं मुझे
फिर भी तुम्हें अपनी तस्वीर दिखाने से डरती हूं।
कहीं तुम्हे खो देने का भयानक सपना असल ना बन जाए ,
इसी पशोपेश मे अपनी चाहत के इजहार को मारा करती हूं
रात भर सोचती हूं कि तुम्हारी अजनबी महबूबा को एक चेहरा दे दूं
पर हर सुबह उम्मीदों के पंख काटकर अपनी तस्वीर फाड़ा करती हूं।