हमसफ़र
हमसफ़र
जिन्हें कभी अपना कहते थे, अपने न हुए,
परायों को अपना कैसे बोल दें, अपने ही नहीं,
हमसफ़र मेरे राह में साथ छोड़ के चल दिये,
अपने न बने, मग़र कभी बेगाने भी न हुए।
जिनकी चाहत में हमने अपनों को पराया बनाया,
वो चाहत न थी, बस वो तो इक हमने भ्रम बनाया,
जीने मरने की चाहतों को खत्म कर के हमने,
खुद को इन्सान बताया था, तुझे खुदा था बताया।
मेरे खुदा ने खुदाई छोड़ दी, मैं मग़र इबादत पे हूँ,
कभी तो नज़र होगी उनकी मेरी ही तरफ,
कभी तो समझेंगे, कि मैं उनकी दी तन्हाई पे हूँ,
वो पराये हो जायें चाहे, मैं तो अपनेपन की ज़िद्द पे हूँ।
जिन्हें कभी अपना कहते थे, अपने न हुए,
परायों को अपना कैसे बोल दें, अपने ही नहीं,
हमसफ़र मेरे राह में साथ छोड़ के चल दिये,
अपने न बने, मग़र कभी बेगाने भी न हुए।

