हमारी अजीब सी नींद
हमारी अजीब सी नींद
नींद न आती थी कभी रातों को
उनके खयालों में खोए खोए।
वह आकर बैठा एक दिन मेरे पास
उस दिन ये आंखें नहीं जगी
अरे अरे यह कैसा खयाल था मेरा हमें इस दिन नींद बहुत थी लगी।
एक बार जाग के देखा उसे
अंधेरी रातों में
ऐसा लिपटा था ओ जैसे कपड़े लिपटे हो तन से।
ऐसे लिपटे ही रात कब बीत गई, पता नहीं
वो भी कुछ नहीं बोला हम भी कुछ नहीं।
सुबह हुई नींद खुली गुजर गया जन्नत का मेला
खयाल फिर से खयाल बन गया मैं भी अकेली वो भी अकेला।