हम भूल चुके हैं तारीफ करना
हम भूल चुके हैं तारीफ करना
कभी मुड़ कर देखता हूँ ,मैं वो वक़्त पुराना,
तो कैसे कैसे सुहाने से, मंजर याद आते हैं,
वो महफिलों में उठती, वाह वाह की खनक,
वो शाबाशियों के भरे ,जाम छलक जाते हैं,
और साथ में रह रह, याद आता है उनका ,
जोश में डूबा,वो दाद देने का अनोखा अंदाज़
आज न जाने जब सब, विस्मृत सा है हो रहा,
दिल क्यों उन लम्हों की, याद से न आता बाज़,
दौरे संगदिली मैं है बेमानी ,गए रिवाजों का अखरना,
हम शायद भूल चुके हैं,आजकल तारीफ करना।।
दौर वो भी बस ,क्या ही खूब था यारो अपना,
मेरी आँखों का हर ख्वाब, था उनका भी सपना,
हर एक ठोकर पे संभाले ,ऐसा कोई तो हाथ था,
राह कोई भी चुनूँ ,अपनो का मिलता ही साथ था,
मेरी झिझक ,मेरी घबराहट सब कहीं काफूर थी,
सफर की थकावट की, दवा थी बस दाद उनकी,
मंजिल मेरी तब भी उस दौरे में ,रही कोसों दूर थी,
अकेला घूमता हूँ अब, अरमानों की सलीब उठाये
बहुत मुश्किल है ,ए जमाने तेरी इस खाई को भरना,
हम शायद भूल चुके हैं, आजकल तारीफ करना।।
ये समय तो न जाने, कितने ही भले शब्द खा गया,
शाबाश, बहुत अच्छे कहने का, जमाना चला गया,
अब न रखता हाथ कंधे पर,ना ही होती कोइ करताल,
हौसला अफ़ज़ाई से पहले, खड़े न जाने कितने सवाल,
सिकुड़ती दुनियां में हुए, अब सब अल्फ़ाज़ भी छोटे,
फ़ोन की कृत्रिम तालियाँ, अंगूठा या फिर इमोजी झूठे,
अब सराहना बस रह गयी, मात्र एक औपचारिकता है,
कुछ नोट तुम फेंको दोस्त, अब प्रोत्साहन भी बिकता है,
इस बनावटी दुनियाँ और, इसके नित बदलते निज़ाम में,
न अब कर शिकायत और न ही इन मायूसियों से डरना,
हम शायद भूल चुके हैं, आजकल तारीफ करना।।