हिसाब मांगेंगे.
हिसाब मांगेंगे.
वह जो कल गांव के द्वार को पारकर
शहर की चारदीवारियों में कैद थे,
वो आज शहर की रोशनी से टूट कर बिखर गए हैं।
जिनके सपने शहरी आशियाने में छुपे थे
वे आज सड़कों पर नजर आ रहे हैं
रोते बिलखते बच्चे अब शहर से गांव जा रहे हैं।
लाखों की हुजूम सड़कों पर बिखर चुकी हैं,
शरीर के कुछ हिस्से रेल की पटरियों पर पड़े हैं,
खून से सनी रोटिया अब जार-जार रोती हैं।
जिनके निकले पसीने खून समझे जाते हैं
उस खून को दिल्ली के दीवारों में दफनाने वालों
ये लोग एक दिन तुझसे हिसाब मांगेंगे।
ये रोते-बिलखते बच्चे, बूढ़े
राजमार्ग की हवेलियों में बैठे मोहल्ले वालों
ये लोग एक दिन तुझसे जवाब मांगेंगे।