हे राम..!
हे राम..!
पर...!
मुझे तो मुक्ति की चाह
ना ज्ञान ना मान सम्मान
समीप है सम्पदा अपार।
हे राम..!
नहीं तेरी मित्रता की लालसा
हो अराध्य के पूज्य अराध्य
प्रिय हों पर घनिष्ठ नहीं हो
लंका विजय का वरदान तुम्हें ।
हे राघव..!
दसग्रिव को चाह नहीं कुछ
समक्ष रहना चार धाम तुल्य
युगों-युगों तक यह कथा चलेगी
रावण को मार ना सकेंगे
सब में उसकी व्यथा रहेगी।
