हाय बुढापा
हाय बुढापा
बुढापे में वो साहब बड़े अकेले रहते
खुद की खुद ही सुनते खुद की खुद की कहते,
अक्सर लगता था उन्हें कोई नहीं सुहाता है,
पार्क के कोने में बैठे रहते क्या घर याद कभी नहीं आता है।
परिवार के लोग कहते हैं
बुढापा है इसलिए सनक चढ़ गई,
दिमागी हालत तो पहले ही ठीक न थी
अब और बिगड़ गई।
पहले बच्चों से बड़ा लाड़ लडा़ते थे,
फिर उन पर हरदम झल्लाते थे,
अब जाने क्यों खो गए खुद में क्यों
पहले तो सारा घर सिर पर उठाते थे।
पहले तो घर का ध्यान भी रख लेते थे,
अब जब जी चाहे कहीं भी चले जाते हैं,
पहले संभाल आसान थी,
अब सनकी हो गए हैं सबको बड़ा सताते हैं।
बुज़ुर्ग बेचारा बैठा सोचे,
मेरे अकेलेपन पर दुनियावाले सनक का ठप्पा लगाते हैं,
वे क्या जाने आखिरी पड़ाव पर मन मस्तिष्क
कैसा महसूस कराते हैं।
उन हाथों में वो बात नहीं
जो जीवनभर मसरूफ रहे,
उस दर दीवार में वो बात नहीं
जो जीवनसाथी बिन खामोश हुए।