हार
हार
मैं तब भी हारा था,
मैं अब भी हारूँगा !
न मैं तब समझा था,
न मैं अब समझूंगा !
ये धोखे ये झरोखे,
कैसे हैं ये सारे मौके !
किस मिट्टी के शेर हो तुम,
किस झुठ में खोये हो तुम !
न ये खेल नया है,
ना ही इस खेल में तुम !
तब भी तो जानते थे,
अब भी जानते हो तुम !
इस रंगमंच के नाटक का,
एक बस किरदार हो तुम !
और क्या सोचते हो आखिर,
ऐ पुराने से मुसाफिर !
जब पर्दा ये फिर गिरेगा,
तब वही सब फिर घटेगा !
सब कुछ जान कर भी,
क्यों अनजान बने हो तुम !
इन्हीं सब जवाबों में,
छुपा कोई सवाल हो तुम !
पर संभल जाओ और जान लो,
थोड़ा सा ही सही पर पहचान लो !
वरना तब भी तो हारे थे तुम,
और अब भी हारोगे तो सिर्फ तुम !
