डर !!!
डर !!!


बीच हूं मैं शोर के इतने,
कि सन्नाटे से डर लगता है
किसी जाने हुए से नहीं बल्कि,
अजनबियों से शहर लगता है
किसी शाम के कोई गाने में,
किसी की याद के साए में,
किसी पल की मुस्कराहट में,
मुझे कुछ अपना सा लगता है
कुछ थोड़ी से वो राहें अनजानी,
कुछ थोड़ी सी उनकी मेहरबानी
और जो हैं थोड़ी कुछ पहचानी,
अब उनमें भी कुछ अनजान सा लगता है
किसी गम भरे तराने में,
किसी एक मयखाने में
किसी रात के ढल जाने में
मेरा दिन भी ऐसे ही बनता है
किसी फरेब में फंस कर ही ,
किसी धोखे में बस कर ही
किसी झूठ के आशियाने में
मुझे अब सच्चा लगता है
जिस मोड़ पर हूं मैं खड़ा,
जिस राह पर हूं मैं चला,
शायद आगे मैं हूं इतना निकला
कि वापिस जाने से डर लगता है
बीच हूं मैं शोर के इतने,
कि सन्नाटे से डर लगता है !