गज़ल
गज़ल
वीरानियाँ बड़ी हैं,
लगे न ज़िस्त-ज़िस्त सा,लगे न जश्न-जश्न सा,
बिछे हैं पहरे सिम्त हर, हर पल है सनेहा,
दिक्कतों से है घिरा,अपना शहर यहाँ,
महफ़िलों के अब कहो खिलते हैं गुल कहाँ!
हिम्मत से इनसे कर गुज़र, हों होसलों के रहगुज़र,
कुछ और देर को मगर,रख ख़्वाहिशों को दिल में धर,
लौट आएंगी रानाइयाँ,करने शहर बसर!!
चारों तरफ़ हैं पहरे, आफ़त की यह घड़ी है !
मुश्किल सी आ पड़ी है, हम सभी के इस शहर में,
गुलज़ार थी जो महफ़िलें सूनी सी अब पड़ी हैं !!
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