गूंज- घरोंदे
गूंज- घरोंदे
कौन कहता है की घरोंदो की चाह
सिर्फ इंसानी खून को ही है,
समुन्दर किनारे पर गिरती पड़ती
लहराती लहरों को गौर से पढ़ा है कभी,
समुन्दर के आगोश से बचती भागती,
अपने किनारे से मिलने बार बार आती,
पर गौर किया कभी की आखिर उस
किनारे में बात क्या ख़ास है|
सिर्फ मुलायम रेत की तलब तो उन
नशीली लहरों की प्यास नहीं हो सकती,
असल में वो तो उन छोटे रेत के
टीलों को साथ ले जाने आती है,
आशियाने की चाह उसे भी तो होती है,
तभी तो दूर से एक झलक दिखते ही,
झूम के नाचती बल खाती हवा सी आती है,
और अपने घरोंदे को साथ ले जाती है|