गर्म ~ए ~ हयात
गर्म ~ए ~ हयात
मुझे अपने इश्क की गर्मी से ना नवाज़,
मैं तो पहले से ही पिघलती हुई एक शमा हूँ,
जिसमें रोज़ जल जाते हैं परवाने हजार,
तेरा इश्क का भला अब मैं कैसे रखूँ हिसाब ?
गर्म बाहें तेरी जब तन से लिपटती हैं मेरे,
मदहोश लबों से निकलता है तेरा ही नाम,
अधरों पे अधर रख के जब तू चूमे मुझे,
सच कहूँ तब बन जाती है अपनी कोई बात।
मेरा तन जलता है रूह में तेरी घुसने को,
तू रूह से ज्यादा रखता अपने तन के साथ,
यही तो होता है असली मिलन दो रूहों का,
जब एक आग जलती है इन रूहों के साथ।
तेरे इश्क की गर्मी मुझे जाने ना देती,
मैं पिघल जाती हूँ तब और तेरे साथ,
सुबह होने पे पता चलता है मदहोश थी मैं,
तेरे इश्क की गर्मी में जलती रही सारी रात।
शमा - परवाने का ये खेल बड़ा महंगा है,
हर परवाने से ज्यादा पसंद मुझे तेरा ही साथ,
कोई पूछे अगर कि क्या है तेरे इस परवाने में ऐसा ?
मैं कहूँगी कि उसका इश्क है गर्म ~ए ~ हयात।।