वो एहसास अपने बदन का ,
मुझे फिर से दे दो ना यार ,
जिसमे आप खड़े थे चुप ,
और मैं कर रही थी चीख पुकार |
कैसा अनोखा सा था ना ?
वो अपना मिलन ....
जिसमे धीमी थी साँसें ,
और बोझल थे मन |
छाया था शाम का घनघोर अंधेरा ,
लबों को लबों की लाली का बसेरा ,
हाथों को थाम चल रहे थे हम समान ,
शब्दों की वाणी को मिला था विराम |
वो एहसास अपने बदन का ,
मुझे फिर से दे दो ना यार ,
जिसमे आप खड़े थे चुप ,
और मैं कर रही थी चीख पुकार |
कितने बहाने थे तब बनाने को ,
दिलों से धड़कने सब चुराने को ,
ज़िस्मों की गर्मी का एहसास अनोखा ,
लिपट एक दूसरे में समाने को |
डर से मन बड़ा बोझिल हुआ था ,
सूनी सड़क पर इश्क ~ए ~ कतरा गिरा था ,
खो जाने की उम्मीद से होश संभाल ,
अक्स मेरा तुझमे कहीं थोड़ा घुला था |
वो एहसास अपने बदन का ,
मुझे फिर से दे दो ना यार ,
जिसमे आप खड़े थे चुप ,
और मैं कर रही थी चीख पुकार |
जब जोर ना चल पाया तुम्हारा कोई मुझपर ,
तब छोड़ दिया तुमने मुझे वहीं सड़क पर ,
मैं खुद को संभाल चल दी तुम संग फिर एक बार ,
उस एहसास को दिल में छिपाकर बार-बार |
आज जब भी तन्हाई में वो पल याद करती ,
सच कहूँ अपनी मासूमियत पर रंज करती ,
सोचती हूँ कि क्यूँ ना बहकी मैं उस रोज यार ,
जब मिल रहा था मुझे सिर्फ तेरा प्यार - प्यार |
वो एहसास अपने बदन का ,
मुझे फिर से दे दो ना यार ,
जिसमे आप खड़े थे चुप ,
और मैं कर रही थी चीख पुकार ||