गर्भपात ( एक माँ की पीड़ा)
गर्भपात ( एक माँ की पीड़ा)
अभी तो तुम्हारे कोमल स स्पर्श को महसूस किया था,
मेरी धड़कनों को तुम्हारे कदमों का एहसास हुआ था,
तुमसे जुड़े कितने ही खूबसूरत सपने बुनने लगी थी मैं,
मन ही मन अपने अनुरूप एक आकार देने लगी थी मैं,
पर तकदीर को भी क्या मंजूर था, कैसा यह खेल खेला,
पल में उजाड़ दी दुनिया मेरी,मन का आकार छीन गया,
वो दुनिया मेरी जिसमें तुमसे जुड़े कितने सपने संजोए थे मैंने,
नन्हे कदमों की आहट को दहलीज़ पर आते-आते रोक दिया,
जिस्म का हिस्सा था वो मेरा जो कट कर आज अलग हो गया,
मांँ होने का खूबसूरत एहसास था जो वो मुझसे जुदा हो गया,
खिलने वाला था एक फूल जिस चमन में वो चमन उजड़ गया,
एक नारी का सर्वोत्तम श्रृंगार था जो वो श्रृंगार भी बिखर गया,
यह तन की पीड़ा तो भर जाएगी पर मन का ज़ख्म कैसे भरे,
बिछड़ गया जो कोमल स्पर्श मुझसे उसका मरहम कैसे मिले,
आज भी जब वो पल याद आता मन जंजीरों में जकड़ जाता,
स्पर्श न कर पाई वो नन्हा पौधा दिल यही सोच बार बार रोता,
अपने जिस्म से निकालकर एक जान को जान देती है वो माँ,
चेहरा देखे बिना ही संतान से बेइंतहा मोहब्बत कर बैठती माँ,
जब तकदीर उस माँ के जिस्म से वो जान अलग कर देती है,
तो एहसास ही नहीं उसकी मोहब्बत का भी कत्ल कर देती है।

