गर्भ शिशु
गर्भ शिशु
।१ ।
एक आवरण में कैद
हर तरफ तम ही तम
सांद्र जल के मध्य
स्रोत से जुड़ा गर्भ शिशु
धक - धक, एक गूंज
सुनता बस स्पंदन
अनजान मद्धिम स्पर्श
मात्र यही अहसास उसे, जीवन का ।
एक चेतना - एक चेष्टा
कवच से बाहर निकलने की
एक खोज घनघोर तम में
अज्ञात गूढ़ को प्रकट करने की
नन्ही उंगलियों से कुरेदता
आत्मशक्ति से धकेलता
निकलता है, अज्ञात जगत में
तज उपलब्ध सहज सुलभ को।
।।२ ।।
नवीन जगत, पूर्व से पूर्णतया भिन्न
अतिशय प्रकाश, सब दृश्यमान
खुला आसमान, सब गतिमान
मृदुल झनकार, सब श्रव्यमान
स्वाद, सुगंध नाना प्रकार
स्पर्श स्नेह, सब भाव प्रधान।
सर्वसुलभ फिर भी प्रयास
मारता हाथ - पांव दिन रात
शक्ति संजोता पहचानता हर द्वार
करवटें लेता मुठ्ठी बांध
गोद से उतर स्वयं चलने को बेकरार
यदि पैरों पर चल ना सके
तो घुटनों के बल ही सही
ना बहुत दूर तो कुछ दूर ही सही
पर चलना है उसे, एकनिष्ठ यही।
भाषा नहीं आती तो सीखना है
उम्र कम है तो क्या, उसे बोलना है
समाहित करते, परिस्थितियों से खेलते
आ खड़ा होता है, युवा शक्ति के साथ
संघर्ष कर जीवन पथ पर होता अग्रसर
नित कवच तोड़, गढ़ता नव कीर्तिमान।
।३।
जब भी निराशा का भाव आने लगे
सब तरफ बंधन, कवच सा लगने लगे
तम ही तम हो, प्रकाश नजर ना आए
सोचना तुम, उस नन्हे शिशु के बारे में
जो कवच तोड़, बाहर निकलता है
अन्धकार को तज, प्रकाश चुनता है
जीवन पथ पर बेहिसाब गिरता है
पर छोड़ता नहीं, अपनी कोशिश
जब तक, अपने पैरों से नहीं चलता है।
