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अजय गुप्ता

Abstract

4.8  

अजय गुप्ता

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लॉक डाउन का वक्त

लॉक डाउन का वक्त

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घर पर रुके रुके

एक अरसा गुजर गया था

मुठ्ठी की रेत सा फिसलता 

समय अब रुक सा गया था


ना जाने कितने प्रयोग कर लिये

अब शायद कुछ बचा ही ना था

नजर दौड़ाई तो सोचा

अलमारी ही ठीक कर ली जाए


हैंगर पर कपड़े तरतीब से टंगे थे 

अधिकांश धुले और इस्त्री किए थे

एक सेक्शन कुछ अनछुआ सा था

कपड़ो का अंबार सा लगा था


सब आपस में गुत्थमगुत्था

अरे ये कमीज भी तो है मेरे पास

 कब से देखी ही नहीं पहनी ही नहीं

उसके पीछे की तरफ लाल रंग लगा था


ऐसे जैसे किसी ने ठप्पा लगाया हो

प्रेम से अपना निशान बनाया हो

फिर वो शाम याद आ गई 

नदी किनारे की मुलाकात याद आ गई

 

धुले कपड़ों में सब धुल गया था

पर इस सेक्शन अभी कुछ बचा था

काफी पुरानी एक डायरी भी रखी थी 

;

उस ज़माने की कविताएं लिखी थी


बहुत करीने से हर पन्ना सजा था

उस वक्त का इतिहास लिखा था

एक पन्ने पर आड़ा तिरछा 

अजीब सा कुछ लिखा था 


काफी वक्त उस पन्ने पर लगा था

सोचता रहा उसमे क्या छुपा है

 सबसे ज्यादा समय वहीं कटा था

कुछ शब्दों की उकेरी हुई लकीरों में


पुराना वक्त रह रहा होता है

कुछ सुलझे कुछ अनसुलझे 

सवालों में वो सो रहा होता है 

वक्त कभी कटता नहीं


परत दर परत यादों में

दर्ज हो रहा होता है

जैसे ही पलटों पन्ने

टांग पसारे सो रहा होता है


जगाओ उसे तो होता है

इतना कुछ उसके पास

मानो दरिया यादों का 

बह रहा होता है।


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