रहबर
रहबर
कभी दिल हिन्दू होता है
कभी मुसलमां होता है
तेरे करीब आने पर
बस ये इंसान होता है
मरुस्थल में था जब
गंगा कैसे नहाता
नदी के तीर पर मैं
तुझे जल क्यों ना चढ़ाता
चलता चला आया
दर पर तेरे
तू रहबर है मेरा
अपना मजहब क्यों नहीं बताता
अमन की चाह है हर किसी को
ना जाने कब तेरा दीदार होगा
मेरे मालिक बस ये बता दे कि
तेरे नाम पर कब तक कत्लेआम होगा
इल्म और हुनर के इस दौर में जब
इंसान ने चूम ली चांद की धरती
पर इसे तेरे एक ही होने का
सुकुने ऐतबार कब होगा
तेरी है ये धरती, तेरे ही दरिया सारे
तेरा है ये आसमां, तेरे ही चांद सितारे
जब सब तेरा ही है तो हमें
मुसाफिराना अहसास कब होगा।
