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Shipra Verma

Abstract

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Shipra Verma

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गोधूलि की बेला

गोधूलि की बेला

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गोधूलि की बेला क्या बहुत समय तक रहती है

निशा अलबेली को कितनी आतुरता रहती है।


जिस रफ्तार से गौओं का हम दोहन कर रहे है

गौ ही नहीं होंगे तो फिर कैसी “गो"- 'धूलि' होगी


सूरज अस्ताचल होते तो सब उनके पीछे होते

कहाँ पिता का इतना अनुसरण अब बच्चे करते है


इस दुनिया को निशीथ की बेला लगती है अपनी

गहन तमस में खुल जाती है जैसे पाँखें सबकी


सांझ ढले घर जाने की जल्दी अब नहीं किसी को

गायें भी नहीं है अब और ना ही गोधूलि अब हो।


हम थे किस्मतवाले देखा गायें भी, गोधूलि भी

घर जाने की कैसी जल्दी रहती थी तब हमको


अब न जाने चक्की के कैसे पाटों में है हम अटकें

भटक रहीं है सारी दुनिया या केवल हम है भटकें?


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