गलफत
गलफत
रंजिशें खामख्वाह की दिलों में दरार करती
क्यों बातचीत की हर राह बंद कर दी
क्या जरूरी है की हर बार तू ही सही हो
क्या मेरी नज़र कभी सही नहीं हो सकती
खामोश हूँ मैं तो क्या हर इलज़ाम दे दोगे ?
क्या ख़ामोशी मेरी बेगुनाही नहीं हो सकती ?
माना की मुझसे अज़ीज़ है कोई तेरा अपना
क्या तेरे अपने से कोई खता नहीं हो सकती ?
एक तरफा फरियाद सुनकर
तूने तो अपनी राय बना ली
मेरे साथ क्या कुछ हुआ
तूने उसकी ना कोई खबर ली
अक्सर ऐसे ही वाकये पेश आते हैं
हम जरा सी बात पर बिगड़ जाते हैं
इतनी भी क्या है वक्त की कमी हमें
की दोनों पहलू हम देख नहीं पाते ?