गली कोई सुनसानी हो!
गली कोई सुनसानी हो!
बंद कोई दरवाजा हो,
गली कोई सुनसानी हो।
बिरह में जलता दिल कोई हो,
रात थोड़ी रूमानी हो।
पग कोई उठे आहिस्ता,
निःशब्द चलता धीरे-धीरे,
पर चाप सुने उन कदमों की,
इंतज़ार में कोई जवानी हो।।
शोर सुनाई दे झींगुरों की,
धाड़-धाड़ करता हो सीना।
सायं-सायं चले हवाएँ,
बरसात का जैसे कोई महीना।
कंपन करतें अधरों संग,
मिलन की तड़प में मस्तानी हो।
बंद कोई दरवाजा हो,
गली कोई सुनसानी हो।।
उठता गिरता पैर संभलता,
घास लताएँ कीचड़ मलता,
रुकता नही कहीं क्षणभर भी,
कि कम न हो घड़ियाँ मिलन की,
नंगे पैर में चुभतें कंटक,
या जैसी भी दुष्वारी हो।
बंद कोई दरवाजा हो,
गली कोई सुनसानी हो।।
नभ में बादल कड़क रहें है,
मन में उम्मीद और आशा भी।
रोम-रोम पुलकित हो बैठा हो जैसे,
और अधरों पर प्रेम-पिपासा भी।
फड़क उठी हो बाहुपाश भी,
जैसे भींचने आलिंगन की तैयारी हो।
बंद कोई दरवाजा हो,
गली कोई सुनसानी हो।।

