घंटा
घंटा
आज सुबह सुबह,
साहब का आया फोन ।
बात बात में हुई बात ।
बात बात में हुई बात खडी,
बात ही बात में,
बॉस की जुबा,
बोल पडी,
"क्या हो रहा काम,
घंटा...."
बात तो थी अनायास,
लेकिन अर्थ लगाने,
करने लगा प्रयास।
जैसे ही घंटा बोला,
खुलने लगी,
दीमाग की घंटी,
अर्थ ही अर्थ,
आ रहें थे नजर ।
लेकिन हर एक अर्थ,
सही था ,
अपनी जगह पर ।
सबसे पहले,
आया नज़र ।
मंदिर का घंटा,
जो करता सावधान,
अंदर के भगवान को ।
भगवान आया हैं,
द्वार तेरे दुखियारी ।
कर देना भगवान,
मुराद उसकी पूरी ।
दूसरा घंटा,
आया नजर ।
घडी की सुई,
और उसकी नोक पर ।
जो नचाता इनसान को,
समय की ताल पर ।
सिखाता हैं यह घंटा,
समय की गति,
समय की सीमा ।
बताता हैं,
वक्त वक्त की बात ।
तीसरे घंटा,
अर्थ और राज,
बहुत कुछ लगा गहरा ।
जीसपर था ,कपडो संग,
शर्म,हया का पहरा ।
सोचा,
इस घंटे का अर्थ,
ना लगे तो ही अच्छा ।
वरना !
छोड़ना पडे ,
एक एक का कच्छा ।
घंटा आज,
सिखा गया सब कुछ,
जीवन का सुख,
अंदर का दुख ।