गाँव की पुकार
गाँव की पुकार
मैं पहले भी वहीं था
आज भी वहीं हूँ
मैं पहले भी न बदला
आज भी सही हूँ
पर हे मानुष
तुमने जब से शहर की ओर धरे पाँव
क्यों नहीं सुनी मेरी पुकार
तब रो रहा था पूरा गाँव
तुम खेती को छोड़कर
पशुओं से नाता तोड़कर
शहर की चकाचौंध को अपनाना चाहते थे
तुम एक नई पहचान एक नया मुकाम
पाना चाहते थे
जबकि तुम वह सब कुछ गाँव में भी पा सकते थे !
अपने गाँव को अपने कर्म के बल से अपनी
सोच के बल से धन धान्य बना सकते थे !
पर अफसोस तुम ग्रामीण कहलाने की जगह …
शहरी बाबू बनना चाह रहे थे
आज जब शहर तुमको ठुकरा रहा है
आज जब महामारी का झोंका डरा रहा है
तुझे फिर से गाँव याद आ रहा है
सच ये गाँव फिर भी कहते हैं
आ लौट के आ जा भाई प्यारे तुझे
तेरा गाँव पुकारे खेत खलिहान
और बंजर धरती पुकारे अपने पुरुषार्थ के
बल पर ये गाँव तुझे कभी भूखा न रखेगा
ये गाँव की मिट्टी अब भी कहती है तुम आओ तो
सैलानी की तरह नहीं वरन सपूत की तरह आओ
अपने पूर्वजों की मिट्टी में रखो पाँव
मिलेगी तुम्हें पेड़ की प्यारी छाँव और शीतल जल
और मिलेगा प्रदूषण रहित वातावरण और मीठे फल
लौट आओ कंक्रीट की दीवारों से
जहाँ नहीं हैं …
वन संपदा नदी झरने जंगल
यहाँ सदैव रहता है मंगल ही मंगल
क्योंकि यहाँ प्रकृति का लहराता है अंचल !
