गाँव की गलियों का सुकून
गाँव की गलियों का सुकून
भुलाये नहीं भूलती है गाँव की वो गली
जहाँ बीता है बचपन मेरा।
वो दोस्तों संग मस्ती,जिन्दगी की उमंग थी सच्ची।
उन गलियों की धूल भी सच्चा सोना लगती थी।
जिन गलियों में माँ की ममता,
और पापा की डाँट भी बसती थी।
बचपन की गलियों में जाने से,
आज भी दिल धक से धड़क जाता है।
कहाँ से कोई थप्पा कर दे बरबस याद आ जाता है।
रहते है हम शहर की अपनेपन से खाली गलियों में,
पर सपने में आज भी अपनों से गुलेगुलजार
गलियाँ दिखाई देती है।
जिन्हे सपने में भी देख दिल खुशीयों से भरजाता है।
वो भरी दोपहरी में नीम के नीचे दोस्तों का जमावड़ा,
वो जरा -जरा सी बात पर रूठना और मनाना।
वो एक रुपये की कुल्फी भी
तन और मन दोनों शीतल कर जाती थी।
वो गली के नुक्कड़ पर दुकान वाले चाचा भी
हम सबकी जिम्मेदारी से रखवाली करते थे।
वो कंचे खेलने के बहाने जब हम एक दूसरे से लड़ते थे।
कोई भी काकी कान खींचने में पीछे नहीं हटती थी।
किसी भी घर में हो खुशी वो अपनी सी लगती थी।
किसी एक के दुख में भी पूरे गाँव की आँखें नम होती थी।
अब क्यों नहीं हम उतने खुश कभी हो पाते है।
क्यों कभी अब हम निस्छलता से खिलखिला नहीं पाते है।
गाँव की गलियों सा सुकून क्यों नहीं
शहर की विकसित सड़कों पर पाते हैं।
