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Sulakshana Mishra

Abstract

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Sulakshana Mishra

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फ़ितरत

फ़ितरत

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खड़ी थी मैं इक रोज़

एक ऊँचे पर्वत की तलहटी पे।

देख ऊँचाई पर्वत की

मैं खड़ी रह गयी ठगी सी।

खुद को उस विशाल पर्वत के आगे

मैंने बहुत बौना सा पाया।

देख मेरा बौनापन,

पर्वत खुद पर इतराया।

खड़ी थी मैं इक रोज़

सागर किनारे,

देख विशालता सागर की

खड़ी थी मैं अचंभित सी।

आयी एक लहर तभी

और चूम गयी मेरे कदमों को।

हैं विशाल दोनों ही, 

सागर भी और पर्वत भी,

पर फ़ितरत से अलग हैं दोनों ही।

चूम कर कदम,

सागर महान बन जाता है।

अपने ऊँचे कद पर इतरा कर

पर्वत का कद बौना हो जाता है।



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