एक प्याली चाय की तुम
एक प्याली चाय की तुम
पुष्प की कलियों पे पड़ती
हो सुबह की धूप सी तुम
लट है बिखरी उलझी जुल्फें
लग रही हो रूप सी तुम।
शाम को छत पर चहकते
पंक्षियों के शोर जैसी
सर्द मौसम में निकलती
स्वर्णमयी तुम भोर जैसी।
मेरे नयनों में बसी इस
दृष्टि की ज्योती सी तुम
लग रही हो डाल घूंघट
शीप में मोती सी तुम।
बात करती हर नई हो
सुबह के अखबार जैसी
जो भुला दे काम सारे
तुम हो उस इतवार जैसी।
तन रजत सा लगता है ज्यो
चाँदनी हो चांद सी तुम
भवरें तितली बीच रहती
हो कली आबाद सी तुम।
मन मरुस्थल में मचलती
अंकुरित मुस्कान जैसी
खनखनाती चूड़ियों संग
उर धड़कती जान जैसी।
कल्पना के संग कविता
की लगी हो शोध सी तुम
गन्ध फूलों की लिये ज्यो
नम हवा के बोध सी तुम।
राम की हो जानकी सी
कृष्ण की राधा सी हो
गर कहूँ अपनी तो साथी
मेरा तुम आधा सी हो।
मेरी इच्छा पूरी करती
कामधेनु गाय सी तुम
मेरी खुशियाँ ताजगी हो
एक प्याली चाय सी तुम।