एक 'ना'
एक 'ना'
मैंने खुद को देख आईने में
खुद से ये सवाल किया
क्यों मेरे हिस्से की खुशी को
उसने चंद मिनटों में फूंक दिया
एक 'ना'
हाँ, बस एक ना ही तो की थी मैंने
उसमें इतनी आफत क्यों आई
क्यों उसने जाकर दुकान से
जलाने की सामग्री लाई।
एक पल में ही बदल गया
सबकुछ जो फेंका उसने मुझपर
उसने मेरे जिस्म को फूँका
कोमल सी परत जो थी चेहरे पर मेरे
उसको खुरदरा बना दिया।
नफरत की आग जो पनप रही थी उसके अंदर
उसने उसे हैवान बना दिया ।
माना मेरी शक्ल ए सूरत
अब लोंगो को रास नहीं आती
मैं सामने आती हूँ,
वो बगल से निकल जाते हैं।
लोंगो की हरकत ने मुझे मजबूर किया
और मैंने खुद से सवाल किया
कि क्या इन्होंने
उम्रभर मुझसे नहीं
मेरी शक्ल सूरत से प्यार किया
मैंने खुद से ये सवाल किया।
ये क्यों हुआ, शायद मालूम है
कि वो इश्क मेरी रुह से नहीं,
मेरे जिस्म से कर बैठा
शायद उसमें इतना आक्रोश था कि
मेरी 'ना' को अपनी हार समझ बैठा।
मैं उठ खड़ी, भूलना चाहती हूँ उस रात को
पर वो आईना हर बार याद दिलाता है
मुझे मेरी शक्ल दिखाता है।
और मैं देखना चाहती हूँ।
मैं याद रखना चाहती हूँ।
जो ख्वाब संजोए थे मैंने
वो बेशक कुछ पल के
लिए डगमगा से गए थे
पर अब इरादे बुलंद हैं
कि तेजाब की आग ने
मुझे जलाया तो जलाया
पर मेरे सपनों को नहीं जला सकती
मुझे मिटाया तो मिटाया
पर मेरे वजूद को नहीं मिटा सकती