एक माँ की अग्नि परीक्षा
एक माँ की अग्नि परीक्षा
क्यों चुनी तूने राह मृत्यु की
दिखा देती जी सकती है तू
उसके बिना भी
जाने देती उसे दूर
अपने प्यार दुलार से
झेलने देती उसे
जीवन के दुःख दर्द
करने देती उसे अनुभव
इस ख़ूबसूरत छलावा सी
ज़िदगी का
क्यों छुपाए रही उसे
अपने आँचल तले
इस धूप छाँव सी ज़िंदगी में !
वो स्वयं लौट आता
या बन जाता आत्मनिर्भर
एक विजयी युवा !
क्यों सहेजे रही तू उसे
नाज़ुक फूलों की तरह !
फूलों को भी तो
एक दिन समय के साथ
अपनी शाखाओं से
टूट कर झड़ना होता है
बिछड़ना होता है उसे
अपने बागवां के ब़ागों से !
पर फिर वही फूल करते हैं
एक नयी बगिया का निर्माण !
जानती हूँ बहुत उलाहने
सहे होंगे तुमने
तेरी परवरिश पर भी
उठाये गये होंगे तीखे सवाल !
रातों को रो रोकर
सूजा ली होंगी तूने अपनी आँखें !
तू तो एक कवियत्री थी
धार पैनी कर देती
अपनी लेखनी की !
पर जानती हूँ
न हो सका होगा तुमसे ये !
क्योंकि पहले माँ थी तुम
कोमल हृदय की
सारे वार सह लिए तूने
दोषी मान बैठी स्वयं को
और सज़ा दे डाली तूने स्वयं को !
और छोड़ गयी ये संसार
पीछे रह गये अनगिनत सवाल!
क्या हर बार देनी होगी
अग्नि परीक्षा माँ को ही
पर क्यों माना तूने दोषी स्वयं को
दोषी तुम नहीं था पूरा परिवार
दोषी तुम नहीं था पूरा समाज
जो सारी जिम्मेदारियां
माँ पर छोड़
हो जाता है कर्त्तव्यमुक्त !
तुम तो चली गयी
इस संसार को छोड़ कर
पर क्या देख पाओगी
कि आत्मग्लानि की अग्नि में
कितने लोग झुलस गये हैं
तुम्हारे जाने के बाद।