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Phool Singh

Tragedy

4  

Phool Singh

Tragedy

एक किन्नर

एक किन्नर

1 min
330



ना मर्म का मेरे भान किसी को, लेकिन फिर भी जिंदा हूँ

ना औरत, ना पुरुष हूँ, कहने को मैं किन्नर हूँ|


सारा समाज दुत्कार मैं खाती, जैसे समाज पे अभिशाप कोई

सोलह श्रृंगार कर हर दिन सजती, जैसे सुहागिन औरत हूँ।


मात-पिता मुझे कलंक समझते, उनकी बदनामी का कारण हूँ

दुख-दर्द भी ना मेरा पूछता, जैसी उनकी ना मैं कोई हूँ।


ना रोजी-रोटी का साधन कोई, माँग-माँग कर खाती हूँ

इज्जत आबरू का मान ना जग में, ना शिक्षा कहीं पर पाती हूँ|


शादी प्रसंग में खुशी मनाती, नाच-नाच कर गाती हूँ

बच्चो के जन्म पर तालियाँ बजाती, दे आशीर्वाद, दुआ मैं जाती हूँ।


घुट-घुट कर हर क्षण मैं जीती, भाग्य लेखी पर रोती हूँ

किस गुनाह की सजा ये पायी, ईश्वर से गुहार लगाती हूँ


ना हमदर्द ना कोई साथी, तन्हा जीवन मैं जीती हूँ

हर पल मृत्यु की राह देखती, नर्क सी जिन्दगी जीती हूँ


जीवन भर मैं कटाक्ष को सहती, गाली मरने पर खाती हूँ

ना कोई मेरा है जग में, पर सबकी मैं बन जाती हूँ


हँसी-ठटोली मेरी करो ना, विनती हाथ जोड़कर करती हूँ

ना पुरुषो में गिनती मेरी, ना शरीर से औरत हूँ।|


ना औरत, ना पुरुष हूँ, कहने को मैं किन्नर हूँ|

मैं तो बस एक किन्नर हूँ, मैं तो बस एक किन्नर हूँ।|


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