एक दौड़ खुद से....
एक दौड़ खुद से....
एक अलसाई सी सुबह,
जहां सारा शहर गहरी नींद में
चादर ओढ़े हजारों सपने बुन रहा होगा,
सुबह बेहद साधारण मगर
कुछ दीवानों के लिए खास सा होगा।
जब सूरज धीमें धीमें
बस अभी निकलने को बेताब सा होगा,
आसमान सुर्ख एक लाल ख़्वाब सा होगा,
टिमटिमाते तारे थके मांदे
अपना समान समेटे
ओझल होने हो बेताब से होंगे,
शहर के शांत मगर खास ब्रिज में
धुंधली रौशनी में कुछ जाग रहे होंगे,
यहाँ सड़कें अपनी नींद में
बुदबुदाती होगी और ......
हवा में एक खुशबू पुरानी
मीठी सी धुन सुनाती होगी।
उस धुन पर सवार हो मतवालों की टोली,
धुंध के बीच बरसती
औंस की बूंदों से नहाते,
धीमें धीमें कदमों से आगे बढ़ते
एक अनजानी दौड़ लगा रहे होंगे।
पांव निरंतर उनके धरती के ऊपर
गिरते पड़ते होंगे,
ये हाड़ मांस नहीं बल्कि आत्मा के घोड़े हैं,
जिन पर सवार होकर कोई इंसान नहीं,
बल्कि धुन के पक्के
कुछ पागल से दौड़ रहे होंगे।
ये शांत साधक सिर्फ दौड़ते है,
बल्कि उन अदृश्य तानों से भी लड़ते हैं,
जो उनकी चेतना को धुंधला करते हैं,
रोज धिक्कारते हैं, कचोटते हैं,
अजीबो गरीब नजरों से देखते हैं।
मगर हर एक कदम की गति
उनकी एक जादुई मंत्र है,
जो भीतर के अंधकार को मिटाता है,
खुद से बात करके
अनसुना करता है,
आसपास के तंग सवालों को और
खोया रहता है अपने में मग्न।
ये महज एक दौड़ नहीं,
बल्कि त्याग है, समर्पण है, एक तपस्या है,
एक ध्यान है, एक आत्मिक मंथन है खुद से,
एक युद्ध है जिसे हर हाल में जीतना है
खुद से लड़कर।
और पाना है अथाह शांति
एक सहज प्रेरित करती खुशी।
यह दौड़ ना पुरस्कृत करती है
ना कोई तमगा सीने में सजाती है
यह बस आत्मा का एक गहरा संकल्प है
संघर्ष है,
जो तब तक चलता है
जब तक दौड़ने वाला दौड़ता है,
अपने लक्ष्य को नहीं पा लेता है।
यहां कोई नहीं हारता बल्कि
हर दौड़ने वाला जीतता है और
खुशी उस दौड़ को पूरा करने की
चेहरे पर स्वाभाविक रूप से
खुद ही झलकती है।
शरीर का हर दर्द काफ़ूर हो जाता है
सुकून दिलोजान में छा जाता है और
फिर शुरू होती है,
एक नए दिन की योजना,
नया माहौल और एक अनजाना
अबूझा नया रास्ता,
एक नई दौड़ के लिए.......!
