दो हजार
दो हजार
1 min
376
रंग वही रुप वही
वही गांधीजी का मुखड़ा
कल तक था दो हजार
आज कागज का टुकड़ा
किसको कहें व्यथा कथा
किसको सुनाएं दुखड़ा
जीवन सारी बीती महलों में
अंत समय में कचरा
जीवन सार यही है राज
रंग रूप पर न बेकार पड़ो
सब मोह माया है
पद और पैसों से न श्रृंगार धरो
वो सुर्खियां वो सेल्फियां
वो घमंड वो गर्मियां
सब धरी की धरी रह गई यहां
इस लफड़े में न बारम्बार पड़ो
जो है जैसा (सौ-पचास) भी है उनके साथ
जीवन बेझिझक बेहिचक निर्वाह करो
देख दशा दूई हजारी का
अब भी अपनत्व गैरत्व की पहचान करो।