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मिली साहा

Abstract

4.5  

मिली साहा

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हार जाते भूख की लड़ाई में

हार जाते भूख की लड़ाई में

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दिन भर की मेहनत गरीबों की कमर तोड़ देती है,

फिर भी एक रोटी की उसे कीमत नहीं मिलती है,


दिनभर की मेहनत के बाद चंद सिक्के हाथ आते,

जो इनकी उम्मीदों को पल में तार-तार कर देती है,


एक निवाला खाकर ही, किसी तरह गुज़रती रात,

हाय किस्मत ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती है,


ईश्वर क्यों नजरअंदाज करते हैं इनकी बेबसी को,

ये दुनिया भी मज़ाक उड़ाने से पीछे नहीं हटती है,


पेट बांध कर सोते हैं हार जाते भूख की लड़ाई में,

कितने ही दिन इनके चूल्हों में आग नहीं उठती है,


जर्जर हो जाता तन इनका सांँसो को ही बचाने में,

फ़िक्र और चिंता इन्हें चैन से सोने भी कहाँ देती है,


घर की चौखट पे आस लगाए पिता के इंतजार में,

गरीब के बच्चों की ये उम्मीदें कहांँ पूरी हो पाती है,


बेबस लाचार मजबूर पिता खुद को कोसे सौ बार,

कौन समझेगा इन्हें आखिर कैसी ये तड़प होती है,


खाली बर्तन इनके कितनी कहानियांँ करते हैं बयां,

टकराते जब ये आपस में तो केवल भूख चिखती है,


मेहनत का फल भी ना मिले तो कैसे ये गरीब जिए,

गरीबी इन गरीबों को पैरों तले, हर लम्हा रौंधती है।


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